मंगलवार, 29 जनवरी 2019

२० साल पुराने स्वेटर की कहानी 

 



ये कहानी मेरी नहीं बल्कि उस स्वेटर की है जो मैंने पहना है. इस स्वेटर की उम्र २० साल हो गयी और इसकी दूसरी खासियत ये है की इसे मेरी माँ ने अपने हाथों से बुना है। 

एक स्वेटर की क्या कहानी हो सकती है? पर इस स्वेटर की है, इस स्वेटर के पीछे छिपे भावनाओं की है और कैसे इस स्वेटर के बनने की शुरुआत हुई उसकी भी है।  

आज से करीब २० - २२ साल पहले की बात है. हर साल जाड़े के पहले मम्मी लोगो का ग्रुप ऊन खरीदता और धड़ाधड़ स्वेटर, टोपी, दस्ताना बनाना शुरू। ऊन की भी कई क्वॉलिटी होतीं - जैसे वर्धमान, ओसवाल के ऊन का गोला बेहतर क्वालिटी का माना जाता था। ऊन खरीदने पर कांटा मुफ्त देने वाला दूकानदार बेहतर होता। ९ नंबर का कांटा सर्वव्यापी था। डिज़ाइन और कांटे का आदान प्रदान आस पड़ोस में होता रहता।  साथ ही बातें भी की फलां ने मेरा वो नंबर का कांटा नहीं लौटाया, उसने मुझे वो डिज़ाइन नहीं बताया, इस महीने के सरिता और गृहशोभा में नए डिज़ाइन आये हैं इत्यादि।  बच्चे भी सर्दी की धूप में ऊन का गोला बनाने में मगन रहते।  नए जुगाड़ लगाए जाते गोला बढ़िया और बेहतर बनाने के लिए।  

खैर  स्वेटर बुनने का दौर शुरू हो जाता - पहले छोटे बच्चों के लिए फिर बड़ो के लिए। उसमे मेरा नंबर भी आता, मैंने उस समय दिल्ली में रहना शुरू ही किया था तब। और चूँकि मैं बाहर रहता था इसलिए मेरे लिए थोड़े डिज़ाइनर स्वेटर्स बुने जाते। मुझे वो हाथ से बने स्वेटर्स पसंद नहीं आते, कोई मोटा होता बैग्गी की तरह तो कोई टाइट, किसी का गला तंग तो किसी की बाजू लम्बी।  किसी न किसी तरह का नुक्स मैं निकाल ही देता था। मम्मी निराश होती की इतने मेहनत से बुना है और तुम पहनते ही नहीं। हर बार स्वेटर खुलता उसको ठीक किया जाता पर मुझे कभी पसंद नहीं आता। 

वो शायद १९९८ (98) की सर्दियाँ थी जब मम्मी ने थक हार कर बोला तुम्ही बताओ कैसा स्वेटर होना चाहिए जो तुम पहनोगे। मैंने बोला बना बनाया ले लेंगे इतनी मेहनत की क्या जरुरत है।  पर मम्मी नहीं मानी की मेरे हाथ से बने स्वेटर में मेरा प्यार और आशीर्वाद रहेगा, नहीं भी पहनोगे तो रखे रहना कमसे कम मेरे मन को तो तसल्ली मिलेगी। खैर बात आई गई हो गयी। 

उन दिनों अक्षय खन्ना की एक नयी फिल्म आने वाली थी "आ अब लौट चलें " उस फिल्म के मुख्य गाने में अक्षय खन्ना ने एक स्वेटर पहना था जो बिलकुल साधारण और सौम्य था। ना जाने क्यूँ वो स्वेटर मुझे बहुत पसंद आया , शायद उसकी  सादगी भा गयी। मैं साफ़ कर दूँ की मुझे अक्षय खन्ना या इस फिल्म से कोई खास लगाव नहीं। बल्कि मैंने आज तक ये फिल्म पूरी नहीं देखी।  पर उस गाने और उस स्वेटर में ना जाने क्या बात थी।  तो वो गाना "आ अब लौट चलें" टीवी पे आ रहा था , चित्रहार या उसी तरह के किसी कार्यक्रम में।  हमलोग जमुई में थे उस समय। गाना देखते हुए  मैंने बोला अगर स्वेटर बनाना ही है तो इस तरह का साधारण होना चाहिए बिना किसी फूल पत्ती या पेड़ पौधे के डिज़ाइन वाला। बात फिर आई गयी हो गयी और उसके कुछ दिनों के बाद मैं वापिस दिल्ली चला गया।  

अचानक कुछ महीनों के बाद मुझे ये स्वेटर मिला, जो बिलकुल उसी गाने के स्वेटर जैसा साधारण और दो रंगो का था।  बिलकुल उसकी कॉपी तो नहीं पर उसी की तरह का है। कैसे मिला मुझे याद नहीं पर उस समय साधारणतया जब कोई दोस्त या पडोसी घर से दिल्ली आते तो वो सबका कुछ न कुछ सामान लाते।  याद नहीं किसने लाया था। पर पहली बार माँ के हाथो का बना ये स्वेटर मुझे पसंद आया। और इतना पसंद आया की आज २० साल बाद भी पहनने के बाद पहली बार पहनने का अहसास होता है। ऊन की गरमाहट के साथ साथ माँ के हाथों की ऊष्मा और उसके आँचल की ठंढक महसूस होती है। ये स्वेटर आज भी उतना ही अच्छा है , पता नहीं अच्छे ऊन का कमाल  है या माँ के हाथों का और उनकी भावनाओं का। 

२० साल पहले इसकी कीमत का अंदाजा नहीं था पर आज मेरे लिए ये बहुमूल्य है। अब मन करता है शायद फिर कोई मेरे लिए स्वेटर बुने , वैसे ही मेरा नाप ले और स्वेटर पूरी करने की जल्दी हो जिससे की इसी सर्दी में पहन सकूँ। और अब जब इतनी दूर अमेरिका में बैठा हूँ , इसको पहन कर सोच रहा हूँ "आ अब लौट चलें" पर लौटने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा , लौटने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा।  

                                                                   © Pemit प्रेमित @amitcma