हर बार मंज़िल तक पँहुच नाहासिल सा लगा,
ज़ो देखा हर ओर, हर चेहरा बेगाना सा लगा ।
घर से दूर घर बनाना, हमेशा बंजारो सा लगा,
लाख कर ली वफाऐ़ं, हर लम्हा मगर पराया सा लगा।
तड़प रहा हूँ, आकर तेरी आगोश में सर छुपाने को,
चला जिस रस्ते ताउम्र, वापसी उसपे अनजाना सा लगा।
ना वो जमीं ना वो आसमां, चमचमाती भीड़ का कारवां,
दफ़न ना करना यहां मुझे, रूह भी अपना बेगाना सा लगा।
--- प्रेमित (c) 16th March 2013
ज़ो देखा हर ओर, हर चेहरा बेगाना सा लगा ।
घर से दूर घर बनाना, हमेशा बंजारो सा लगा,
लाख कर ली वफाऐ़ं, हर लम्हा मगर पराया सा लगा।
तड़प रहा हूँ, आकर तेरी आगोश में सर छुपाने को,
चला जिस रस्ते ताउम्र, वापसी उसपे अनजाना सा लगा।
ना वो जमीं ना वो आसमां, चमचमाती भीड़ का कारवां,
दफ़न ना करना यहां मुझे, रूह भी अपना बेगाना सा लगा।
--- प्रेमित (c) 16th March 2013
nice one ....
जवाब देंहटाएं